एक नज़र इधर भी
यह उर्दू में एक उम्दा अनुवाद है....
हैं जंगल ये किसके, मैं वाकिफ़ हूं शायद
गाँव में हालांकि उसका मकाँ है
पुरबर्फ़ वादी का करना नज़ारा,
ना उसको गवारा यूँ रुकना यहाँ है
कोई खेतो-खलिहान ना नज़दीक हो जब
झील और जंगल के हैं दरमियां में
अजब कितना गुज़रेगा घोड़े पे मेरे
मेरा ठहर जाना शब-ए-शादमां में...
जंगल हैं तारिक़, गहरे, रुपहले
मग़र मुझको वादे अभी हैं निभाने
कई कोस जाना है सोने से पहले
कई कोस जाना है सोने से पहले।
.........अनुवाद- प्रो. कुलदीप सलिल
संदर्भः अंग्रेजी के श्रेष्ठ कवि और उनकी कविताएँ
राजपाल एण्ड सन्स, नई दिल्ली