एक पुराना मौसम लौटा याद भरी पुरवाई भी
ऐसा तो कम ही होता है वो भी हो तनहाई भी
यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं
कितनी सौंधी लगती है तब माँझी की रुसवाई भी
दो दो शक़्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में
मेरे साथ चला आया है आप का इक सौदाई भी
ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी है
उन की बात सुनी भी हमने अपनी बात सुनाई भी
-गुलज़ार
मेरा खज़ाना
मेरी पसंद की कविताएं, प्रेरक विचार व प्रसंग, नैतिक कथाएँ, संस्मरण, लेख, हिन्दी अनुवाद... और न जाने क्या-क्या... इस खज़ाने में आप भी अपने हीरे-मोती शामिल कर सकते हैं... कृपया इस पते पर अपने ई-मेल करें... surendersml@gmail.com
Tuesday, 11 August 2009
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
है अहल-ए-दिल के लिये अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद
कि संग-ओ-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद
बहोत हैं ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिये
जो चंद अहल-ए-जुनूँ तेरे नाम लेवा हैं
बने हैं अहल-ए-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किस से मुंसिफ़ी चाहें
मगर गुज़रनेवालों के दिन गुज़रते हैं
तेरे फ़िराक़ में यूँ सुबह-ओ-शाम करते हैं
बुझा जो रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है
कि तेरी मांग सितारों से भर गई होगी
चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है
कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी
ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं
गिरफ़्त-ए-साया-ए-दिवार-ओ-दर में जीते हैं
यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते
ग़र आज तुझसे जुदा हैं तो कल बहम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
ग़र आज औज पे है ताल-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं
जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाज-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-निहार रखते हैं
- फ़ैज अहमद फ़ैज
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
है अहल-ए-दिल के लिये अब ये नज़्म-ए-बस्त-ओ-कुशाद
कि संग-ओ-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद
बहोत हैं ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिये
जो चंद अहल-ए-जुनूँ तेरे नाम लेवा हैं
बने हैं अहल-ए-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किस से मुंसिफ़ी चाहें
मगर गुज़रनेवालों के दिन गुज़रते हैं
तेरे फ़िराक़ में यूँ सुबह-ओ-शाम करते हैं
बुझा जो रौज़न-ए-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है
कि तेरी मांग सितारों से भर गई होगी
चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है
कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी
ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं
गिरफ़्त-ए-साया-ए-दिवार-ओ-दर में जीते हैं
यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते
ग़र आज तुझसे जुदा हैं तो कल बहम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
ग़र आज औज पे है ताल-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं
जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाज-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-निहार रखते हैं
- फ़ैज अहमद फ़ैज
Friday, 24 July 2009
सबसे खतरनाक
मेरे प्रिय कवि पाश की एक प्रसिद्ध कविता… जो संभवतः अधूरी रह गई है।
सबसे खतरनाक
मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना...... बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना..... बुरा तो है
पर सबसे खतरनाक नहीं होता
कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना...... बुरा तो है
मुट्ठियां भींचकर बस वक़्त निकाल लेना ...... बुरा तो है
सबसे खतरनाक नहीं होता
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे खतरनाक वह घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी निगाह में रुकी होती है
सबसे खतरनाक वह आँख होती है
जो सबकुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मुहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीजों से उठती अंधेपन की भाप पर ढुलक जाती है
जो रोज़मर्रा के क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है
सबसे खतरनाक वह चाँद होता है
जो हर हत्याकांड के बाद
वीरान हुए आँगनों में चढ़ता है
पर आपकी आँखों को मिर्चों की तरह नहीं गढ़ता है
सबसे खतरनाक वह गीत होता है
आपके कानों तक पहुँचने के लिए
जो मरसिए पढ़ता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
जो गुण्डे की तरह अकड़ता है
सबसे खतरनाक वह रात होती है
जो ज़िंदा रूह के आसमानों पर ढलती है
जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते और हुआँ हुआँ करते गीदड़
हमेशा के अंधेरे बंद दरवाज़ों-चौगाठों पर चिपक जाते हैं
सबसे खतरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
(कविता संग्रह ‘समय, ओ भाई समय’ से
सबसे खतरनाक
मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना...... बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना..... बुरा तो है
पर सबसे खतरनाक नहीं होता
कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना...... बुरा तो है
मुट्ठियां भींचकर बस वक़्त निकाल लेना ...... बुरा तो है
सबसे खतरनाक नहीं होता
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे खतरनाक वह घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी निगाह में रुकी होती है
सबसे खतरनाक वह आँख होती है
जो सबकुछ देखती हुई भी जमी बर्फ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मुहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीजों से उठती अंधेपन की भाप पर ढुलक जाती है
जो रोज़मर्रा के क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है
सबसे खतरनाक वह चाँद होता है
जो हर हत्याकांड के बाद
वीरान हुए आँगनों में चढ़ता है
पर आपकी आँखों को मिर्चों की तरह नहीं गढ़ता है
सबसे खतरनाक वह गीत होता है
आपके कानों तक पहुँचने के लिए
जो मरसिए पढ़ता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
जो गुण्डे की तरह अकड़ता है
सबसे खतरनाक वह रात होती है
जो ज़िंदा रूह के आसमानों पर ढलती है
जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते और हुआँ हुआँ करते गीदड़
हमेशा के अंधेरे बंद दरवाज़ों-चौगाठों पर चिपक जाते हैं
सबसे खतरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
(कविता संग्रह ‘समय, ओ भाई समय’ से
Monday, 1 June 2009
'Stopping by Woods on a Snowy Evening' का उर्दू अनुवाद
एक नज़र इधर भी
यह उर्दू में एक उम्दा अनुवाद है....
हैं जंगल ये किसके, मैं वाकिफ़ हूं शायद
गाँव में हालांकि उसका मकाँ है
पुरबर्फ़ वादी का करना नज़ारा,
ना उसको गवारा यूँ रुकना यहाँ है
कोई खेतो-खलिहान ना नज़दीक हो जब
झील और जंगल के हैं दरमियां में
अजब कितना गुज़रेगा घोड़े पे मेरे
मेरा ठहर जाना शब-ए-शादमां में...
जंगल हैं तारिक़, गहरे, रुपहले
मग़र मुझको वादे अभी हैं निभाने
कई कोस जाना है सोने से पहले
कई कोस जाना है सोने से पहले।
.........अनुवाद- प्रो. कुलदीप सलिल
संदर्भः अंग्रेजी के श्रेष्ठ कवि और उनकी कविताएँ
राजपाल एण्ड सन्स, नई दिल्ली
Saturday, 30 May 2009
रॉबर्ट फ्रोस्ट की कविता का हिन्दी अनुवाद
'Stopping by Woods on a Snowy Evening'
Stopping By Woods On A Snowy Evening
by Robert Frost
Whose woods these are I think I know.
His house is in the village, though;
He will not see me stopping here
To watch his woods fill up with snow.
My little horse must think it queer
To stop without a farmhouse near
Between the woods and frozen lake
The darkest evening of the year.
He gives his harness bells a shake
To ask if there is some mistake.
The only other sound's the sweep
Of easy wind and downy flake.
The woods are lovely, dark, and deep,
But I have promises to keep,
And miles to go before I sleep,
And miles to go before I sleep.
रॉबर्ट फ्रोस्ट की कविता 'Stopping by Woods on a Snowy Evening' मेरी प्रिय कविता है। मैं बहुत दिनों से इसका हिन्दी अनुवाद ढूंढ रहा था। हाल ही में मुझे इस कविता के अंतिम पैराग्राफ का हिंदी अनुवाद मेरे संगीत गुरु श्री रविचन्द्र जोशी जी ने उपलब्ध कराया। यह अनुवाद स्वर्गीय श्री गिरिजा कुमार माथुर ने किया है....हालांकि यह अनुवाद मूल कविता से सीधे तौर पर मेल नहीं खाता लेकिन कविता का मूलभाव इसमें परिलक्षित होता है....यह है इस कविता के अंतिम पैराग्राफ का हिंदी अनुवाद
गहन सघन मनमोहक वन तरु
मुझको पास बुलाते हैं,
किन्तु पूर्व किए जो वादे
मुझको याद हो आते हैं।
अभी कहां अवकाश मुझे
यह मूक निमंत्रण छलना है,
अभी मुझे तो मीलों मुझको,
मीलों मुझको चलना है...
इस कविता का उर्दू अनुवाद मैं शीघ्र ही पोस्ट करूंगा। आपकी टिप्पणियों और सुझावों की इंतज़ार रहेगा।
नमस्कार
Stopping By Woods On A Snowy Evening
by Robert Frost
Whose woods these are I think I know.
His house is in the village, though;
He will not see me stopping here
To watch his woods fill up with snow.
My little horse must think it queer
To stop without a farmhouse near
Between the woods and frozen lake
The darkest evening of the year.
He gives his harness bells a shake
To ask if there is some mistake.
The only other sound's the sweep
Of easy wind and downy flake.
The woods are lovely, dark, and deep,
But I have promises to keep,
And miles to go before I sleep,
And miles to go before I sleep.
रॉबर्ट फ्रोस्ट की कविता 'Stopping by Woods on a Snowy Evening' मेरी प्रिय कविता है। मैं बहुत दिनों से इसका हिन्दी अनुवाद ढूंढ रहा था। हाल ही में मुझे इस कविता के अंतिम पैराग्राफ का हिंदी अनुवाद मेरे संगीत गुरु श्री रविचन्द्र जोशी जी ने उपलब्ध कराया। यह अनुवाद स्वर्गीय श्री गिरिजा कुमार माथुर ने किया है....हालांकि यह अनुवाद मूल कविता से सीधे तौर पर मेल नहीं खाता लेकिन कविता का मूलभाव इसमें परिलक्षित होता है....यह है इस कविता के अंतिम पैराग्राफ का हिंदी अनुवाद
गहन सघन मनमोहक वन तरु
मुझको पास बुलाते हैं,
किन्तु पूर्व किए जो वादे
मुझको याद हो आते हैं।
अभी कहां अवकाश मुझे
यह मूक निमंत्रण छलना है,
अभी मुझे तो मीलों मुझको,
मीलों मुझको चलना है...
इस कविता का उर्दू अनुवाद मैं शीघ्र ही पोस्ट करूंगा। आपकी टिप्पणियों और सुझावों की इंतज़ार रहेगा।
नमस्कार
मेरा खज़ाना
बचपन से ही पढ़ने-लिखने का शौकीन हूँ और जब-कभी भी कुछ अच्छा पढ़ने को मिलता है तो उसको अपनी डायरी में नोट कर लेता हूँ। अब यही बात अंतरजाल पर भ्रमण के दौरान भी हो जाती है... जब भी कुछ अच्छा पढ़ने को मिलता है, तो उसे मैं अपनी कम्प्टूयर फाइलों मे सहेजने का लोभ संवरण नहीं कर पाता। इस तरह धीरे-धीरे एक खज़ाना बनता जा रहा है। मुझे लगा ज्ञान के इस खज़ाने को बांटा जाना भी जरूरी है (क्योंकि ज्ञान बांटने से बढ़ता है), इसी के दृष्टिगत मैंने यह ब्लॉग शुरू किया है। आप भी इसमें अपना योगदान देने के लिए सादर, साग्रह आमंत्रित हैं।
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